Saturday, October 5, 2013

दुर्गा शक्ति का रूप है .......



!!**सभी देशवासियों को नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें**!!

सनातन
धर्म में मुख्यत: पांच उपास्य-देव माने गए हैं- सूर्य, गणेश, दुर्गा, शंकर और विष्णु, परंतु कलियुग में दुर्गा और गणेश का विशेष महत्व है, 'कलौ चण्डी विनायकै।' मां दुर्गा परमेश्वर की उन प्रधान शक्तियों में से एक हैं जिनको आवश्यकतानुसार उन्होंने समय-समय पर प्रकट किया है।

उसी दुर्गा शक्ति की उत्पत्ति तथा उनकेचरित्रों का वर्णन मार्कण्डेय पुराणांतर्गत देवी माहात्म्य में है। यह देवी माहात्म्य 700 श्लोकों में वर्णित है। यह माहात्म्य 'दुर्गा सप्तशती' के नाम से जाना जाता है।

दुर्गा शक्ति का रूप है -

या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:

दुर्गा सप्तशती में कुल 13 अध्याय हैं, जिसमें 700 श्लोकों में देवी-चरित्र का वर्णन है। मुख्य रूप से ये तीन चरित्र हैं, प्रथम चरित्र (प्रथम अध्याय), मध्यम चरित्र (2-4 अध्याय) और उत्तमचरित्र (5-13 अध्याय) प्रथम चरित्र की देवी महाकाली, मध्यम चरित्र की देवी महालक्ष्मी और उत्तमचरित्र की देवी महासरस्वती मानी गई है। यहां दृष्टव्य है कि महाकाली की स्तुति मात्र एक अध्याय में, महालक्ष्मी की स्तुति तीन अध्यायों में और महासरस्वती की स्तुति नौ अध्यायों में वर्णित है, जो सरस्वती की वरिष्ठता, काली (शक्ति) और लक्ष्मी (धन) से अधिक सिद्ध करती है।

प्रथम चरित्र :-
बहुत पहले सुरथ नाम के राजा राज्य करते थे। शत्रुओं और दुष्ट मंत्रियों के कारण उनका राज्य, कोष सब कुछ हाथ से निकल गया। वह निराश होकर वन से चले गए, जहां समाधि नामक एक वैश्य से उनकी भेंट हुई। उनकी भेंट मेधा नामक ऋषि के आश्रम में हुई। इन दोनों व्यक्तियों ने ऋषि से पूछा कि यद्यपि हम दोनों के साथ अपने लोगों (पुत्र, मंत्रियों आदि) ने दुर्व्यवहार किया है फिर भी उनकी ओर हमारा मन लगा रहता है। मुनिवर, क्या कारण है कि ज्ञानी व्यक्तियों को भी मोह होता है।

ऋषि ने कहा कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, भगवान विष्णु की योगनिद्रा ज्ञानी पुरुषों के चित्त को भी बलपूर्वक खींचकर मोहयुक्त कर देती है, वहीं भगवती भक्तों को वर देती है और 'परमा' अर्थात ब्रह्म ज्ञानस्वरूपा मुनि ने कहा, 'नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिद ततम्' अर्थात वह देवी नित्या है और उसी में सारा विश्व व्याप्त है।

प्रलय के पश्चात भगवान विष्णु योगनिद्रा में निमग्न थे तब उनके कानों के मैल से मधु और कैटभ नाम के दो असुर उत्पन्न हुए। उन्होंने ब्रह्माजी को आहार बनाना चाहा। ब्रह्माजी उनसे बचने के लिए योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। योगनिद्रा से मुक्त होकर भगवान विष्णु उठे और असुरों से युद्ध करने लगे। दोनों असुरों ने योगनिद्रा के कारण विमोहित होकर भगवान विष्णु से वर मांगने को कहा। अंत में उसी वरदान के कारण उन दोनों असुरों की मृत्यु हुई।

मध्यम चरित्र :-

इस चरित्र में मेधा नामक ऋषि ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य के प्रति मोहजनित कामोपासना द्वारा अर्जित फलोपभोग के निराकरण के लिए निष्काम उपासना का उपदेश दिया है।

प्राचीनकाल मेंमहिषासुर सभी देवताओं को हराकर स्वयं इन्द्र बन गया और सभी देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। वे सभी देवता- ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के पास सहायतार्थ गए। उनकी करुण कहानी सुनकर विष्णु और शंकर के मुख से तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार का तेज अन्य देवताओं के शरीर से भी निकला। यह सब एक होकर देवी रूप में परिणित हुआ। इस देवी ने महिषासुर और उनकी सेना का नाश किया। देवताओं ने अपना अभीष्ट प्राप्त कर, देवी से वर मांगा।

'
जब-जब हम लोगों पर विपत्तियां आएं, तब-तब आप हमें आपदाओं से विमुक्त करें और जो मनुष्य आपके इस चरित्र को प्रेमपूर्वक पढ़ें या सुनें वे संपूर्ण सुख और ऐश्वर्यों से संपन्न हों।'

उत्तम चरित्र :-
उत्तम चरित्र में परानिष्ठा ज्ञान के बाधक आत्म-मोहन, अहंकार आदि के निराकरण का वर्णन है। पूर्व काल में शुंभ और निशुंभ नामक दो असुर हुए। उन्होंने इन्द्र आदि देवताओं पर आधिपत्य कर लिया। बार-बार होते इस अत्याचार के निराकरण के लिए देवता दुर्गा देवी की प्रार्थना हिमालय पर्वत पर जाकर करने लगे।

देवी प्रकट हुई और उन्होंने देवताओं से उनकी प्रार्थना करने का कारण पूछा। कारण जानकर देवी ने परम सुंदरी 'अंबिका' रूप धारण किया। इस सुंदरी को शुंभ-निशुंभ के भृत्यों (चंड और मुंड) ने देखा। इन भृत्यों से शुंभ-निशुंभ को सुंदरी के बारे में जानकारी मिली और उन्होंने सुग्रीव नामक असुर को अंबिका को लाने के लिए भेजा। देवी ने सुग्रीव से कहा, 'जो व्यक्ति युद्ध में मुझ पर विजय प्राप्त करेगा, उसी से मैं विवाह करूंगी।'

दूत के द्वारा अपने स्वामी की शक्ति का बार-बार वर्णन करने पर देवी उस असुर के साथ नहीं गई। तब शुंभ-निशुंभ ने सुंदरी को बलपूर्वक खींचकर लाने के लिए धूम्रलोचन नामक असुर को आदेश दिया। धूम्रलोचन देवी के हुंकार मात्र से भस्म हो गया। फिर चंड-मुंड दोनों एक बड़ी सेना लेकर आए तो देवी ने असुर की सेना का विनाश किया और चंड-मुंड का शीश काट दिया, जिसके कारण देवी का नाम 'चामुंडा' पड़ा।

असुर सेना का विनाश करने के बाद देवी ने शुंभ-निशुंभ को संदेश भेजा कि वे देवताओं को उनके छीने अधिकार दे दें और पाताल में जाकर रहें, परंतु शुंभ-निशुंभ मारे गए। रक्तबीज की विशेषता थी कि उसके शरीर से रक्त की जितनी बूंदें पृथ्वी पर गिरती थीं, उतने ही रक्तबीज फिर से उत्पन्न हो जाते थे। देवी ने अपने मुख का विस्तार करके रक्तबीज के शरीर का रक्त को अपने मुख में ले लिया और असुर का सिर काट डाला। इसके पश्चात शुंभ और निशुंभ भी मारे गए। देवताओं ने स्तुति की-

सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरी।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरी विनाशम्।।

राजा सुरथ और समाधि वैश्य दोनों ने देवी की आराधना की। देवी की कृपा से सुरथ को उनका खोया राज्य और वैश्य का मनोरथ पूर्ण हुआ। उसी प्रकार जो व्यक्ति भगवती की आराधना करते हैं उनका मनोरथ पूर्ण होता है। ऐसी मान्यता है कि दुर्गा सप्तशती के केवल 100 बार पाठ करने से सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है।

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